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भटका हुआ मुसाफिर – एक नयी खोज

jagate raho
jagate raho
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चला था मंजिल खोजने
राह भटक गया,
घन्ना जंगल, हिसक जानवर
अचानक कोई मिल गया,
दिल हिल गया !
छिप नहीं पाया,
मैं घबराया,
उस पशु की आँखों में
स्नेह की झलक नजर आई,
वीरान सुनशान जंगल में
शेर चीते भालू खूंखार भेड़िए
फिर प्रेम रूपी दरिया
यहाँ कैसे आई ?
वह एक जख्मी शेर था,
भूखा प्यासा,
निर्बल हड्डियों का ढेर था !
वहीं पास में एक निर्मल चस्मा बह रहा था,
मुफ्त में प्यास बुझा लो
अपनी ही भाषा में कह रहा था !
मेरे पास एक खाली बाटर बोटल थी,
उसे भरा और शेर के गले में डाल दी !
उसकी जान में जान आई,
उसी की आँखों में मैंने स्नेह की झलक पाई !
समझ में आया क्या गलत है क्या है सही !
शायद उसी की दूवा से मुझे मंजिल मिल गई,
सोचंता हूँ
इंसानों में ऐसा स्नेह क्यों नहीं ?
इधर सभ्य समाज में,
भ्रष्ट सरकार के राज में,
एक ने सरबजीत को मारा,
दूसरे ने सनाउल्लाह को,
दोनों ही हत्यारे अपने को इंसान बताते हैं,
मांस के साथ साथ अन्न खाते हैं,
खोपड़ी का स्क्रियू घूम गया,
मैं आदमी हूँ भूल गया !
पहले पाकिस्तानी जेल में
फिर जम्मू जेल में,
कैदियों का रक्त बहा राजनीति के खेल में,
राजनीति वालों को मिल गयी
वोट बैंक की आसान सी राह,
गर्म तवे पर परांठा सिक रहा है,
नेताओं की हो रही वाह वाह !
जिनके घर का दीपक बुझा वहां अन्धेरा,
बड़े बड़े मंत्री नेताओं ने डाल रखा है वहीं टेंटों में डेरा !
हरेंद्रसिंह रावत

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