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राह भटके को जो राह दिखा दे वो सदा याद आते हैं

jagate raho
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ये जिन्दगी की राहें बड़ी अजीबो गरीब हैं, कभी पर्वत श्रृंखलाओं पे चढ़ाती है तो कभी कंटीले रास्तों में दौडाती है, कभी ऐसे नाजुक मोड़ पर लाकर खडा कर देती है की आगे पीछे ऊपर नीचे कहीं रास्ता नजर नहीं आता ! कभी तो मंजिल पर पहुँचने पर भी मंजिल नजर नहीं आती, दिल घबराने लगता है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है ! कभी नदी में बाढ़ आने से पुल टूट गया है, नदिया के उस पार घर है और घना जंगल, शेर चीते बाघ बघेरों की डरावनी आवाजें आने लगी हैं, रात आने वाली है ! ठीक ऐसे वक्त पर ही ऊपर वाला याद आता है ! “सुख में सुमिरिन ना किया दुःख में किया याद कहत कबीरा दास की कौन सुने फ़रियाद ” ! यह दोहा कबीर दास जी ने पंद्रहवीं शताब्दी में अपने चेलों को सुनाया था और उसका अर्थ और भावार्थ आज भी वही है जो ६ सौ साल पहले था ! “एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुन: वास, तुलसी संगती साधू की घटे कोटि अफ़राध” ! यह भी अटूट सत्य है की विपति में भी आपने सच्ची श्रद्धा भाव से उसे याद किया चाहे आधी ही घड़ी सही, वह किसी न किसी रूप में मदद करने पहुँच जाता है ! बच्चों के साथ तो वह बाल कृष्ण बन कर सदा अगल बगल में ही रहता है ! मेरे कहानी के पात्र आद्या प्रसाद सिंह जी भी बचपन में अपने परिवार की जिमेदारियों का बोझ सर पर रख कर अनजान रास्तों पर चल रहे थे, अपनी आजीविका की खोज में तो “जहाँ चाह वहां राह” वाली कहावत साकार हुई और इन अनजान राहों में भी उन्हें राह दिखाने वाले मिले जिन्होंने समय समय पर, हर मोड़ या नुकड़ पर उनका साथ दिया, जिन्हें वे आज तक अपनी यादों में संजो कर रखे हुए हैं ! उन्हीं में से कुछ सजनों-महानभावों को वे इस पुस्तक में स्थान देना चाहते हैं !

अपनी यादगार में वे सबसे पहले अपने माँ पिता जी को स्थान देते हैं, अपनी माँ को वे अभी भी नहीं भूल पाएं हैं ! कंटीले राहों पर चलते हुए एक अनजान राह भटके बच्चे को राह दिखाने का श्रेय वे श्री घिसिया वन सिंह देते हैं, जिन्होंने उन्हें बहुत नाजुक मौके पर जब सब पास पड़ोसी, नाते रिश्तेदारों ने हाथ खींच लिए थे, १५/- रुपयों की सहायता करके उन्हें सातवीं क्लास की परिक्षा देने में मदद की थी ! दूसरा नाम वे ताऊ काली चरणसिंह जी, जो उनके पिता जी के चाचा जी के लडके थे, को याद करते हैं, उन्होंने उनके परिवार को मानसिक, आर्थिक, मदद पहुंचा कर इनके नादान भाई बहिन, बीमार पिता जी की देख भाल करके इनके परिवार को बिखरने से बचाया था ! इसके अलावा भी वे अपने ताऊ ताई को भी याद करते हैं अपने चचेरे भाइयों को याद करते हैं !

जब पहली बार सातवीं पास करके वे रोजगार की तलाश में घर से बाहर निकले, बाहर की दुनिया उनके लिए बिलकुल अनजान थी ! वे चांदनी चौक आए, चांदनी चौक कटरों के लिए मशहूर है, इन कटरों में देश का सबसे बड़ा होल सेल कपड़ों का मार्केट है ! कपड़ा मीलों से तैयार माल सीधे चांदनी चौक के इन व्यापारियों के पास आता है और उनसे खुर्दा व्यापारी देश के अन्य हिसों में ले जाते हैं ! आद्या प्रसाद सिंह दो तीन दिन तक इन कटरों में नौकरी की तलाश में घूमते रहे और आखीर उनकी भाग दौड़ सफल हुई ! एक दिन सुबह सबेरे वे धुलिया कटरा में, एक बड़े व्यापारी के दरवाजे पर पहुँच गए, गेट खुला मारवाड़ी सेठ जी जिनका नाम बाबू लाल सरावगी था उनसे उनका सामना हो गया ! उन्होंने औपचारिकता के दो चार सवाल इनसे पूछे और आद्या प्रसाद सिंह जी को नौकरी पर रख लिया ! उन दिनों ज्यादा पूछ ताछ का झंझट नहीं था ! वहां उनका काम बाजार से सब्जी राशन और अन्य सामान ले आना, बच्चों को स्कूल भेजने जाना, शाम को छुटी होने पर वापिस घर ले आना, दूकान में सेठ जी को खाना पहुंचाना और एक दो घंटे दूकान में कपडे की गांठों को सुरक्षित स्थानों में रखवाने में मदद करना ! कभी कभी उनके कीचन में खाना , नास्ता बनाने में सेठानी की मदद करना ! इस तरह इन्होंने खाना बनाना भी सीख लिया ! कार की सफाई करते करते कार चलानी भी सीख ली ! सेठानी इन्हें बच्चे की तरह रखती थी, अच्छा खाना, अच्छा पहनना, रहन सहन भी ठीक था तो सियत भी बहुत सुधर गयी, व्यक्तित्व निखर आया ! सबसे बड़ी बात यह थी की परिवार के किसी भी सदस्य ने इन्हें कभी परिवार से अलग नहीं समझा ! यहाँ इन्होंने पूरे पांच साल नौकरी की और १९५६ में दूसरी जगह ज्यादा पैसों वाली नौकरी मिलने पर ये नौकरी छोड़ दी ! उनका प्रेम, स्नेह वे आज भी याद करते हैं ! वे इसे प्रगति की पहली सीढी बताते हैं !

अमेरिका न्यू यॉर्क आने पर – आद्या प्रसाद सिंह कहते हैं
” मैं पहली बार भारत से हैंडीक्राफ्ट हैंडलूम एक्सपोर्ट कोपोरेशन की ओर से डेपुटेशन पर सन १९६४ में अमेरिका आया था यहाँ हमारे कार्यालय का नाम था ‘हैन्डीक्राफ्ट हैंडलूम सोना शो रूम’ ! मेरी पहली मुलाक़ात हुई स्वर्गीय श्री यसवंत सिंह प्रेमी से जो यहाँ हमारे न्यू यॉर्क कार्यालय के जनरल मैनेजर के प्राईवेट सेक्रेटरी थे ! उन्होंने ही मुझे यहाँ मेरी ड्यूटी समझाई, यहाँ किराए का मकान दिलवाया, यहाँ के भारतीय स्टोर, शॉप दिखलाए, जहां से हम चावल, आटा, और मशाले, सब्जियां खरीद सकते थे ! उन्होंने मुझे हर कदम पर सहयोग दिया ! उनके इस आत्मिकता, स्नेह और सहयोग को मैं कभी नहीं भूल सकता हूँ ! श्री शिव चरण दास, सेल्स डिपार्टमेंट के मैनेगेर थे का भी आभारी हूँ ! उन्होंने भी मेरे जम जमाव और आफिसियल कामों में जानकारी हासिल करने में मेरी बहुत मदद की ! उनके साथ बाद में हमारे पारिवारिक सम्बन्ध बन गए थे जो आज भी बने हुए हैं ! कभी कभी जब भी समय मिलता है हम मिलते हैं और पुराने गिलवे सिकवे, भूली बिसरी यादें ताजी करते हैं !

रॉयल फॅमिली आफ भूटान भी मेरी यादों में आज भी सुरक्षित हैं ! मैंने करीब सात साल ‘भूटान मिशन’ की सेवा की इस तरह मैं इस परिवार के संपर्क में रहा ! जब भी कभी साही परिवार यहाँ न्यू यॉर्क आता था तो मैं उनके हर फंक्शन /पार्टी में हाजिर रहता था ! वहां जो आदर और समान मुझे मिला वह कभी नहीं भूलाया जा सकता ! श्री ललितकुमार जी और श्री तेज सिंह चौहान जी के साथ प्रगाढ़ समबन्ध हैं इस लिए उनका नाम मैं पुस्तक में यादगार स्वरूप स्थान देना चाहता हूँ “!

वे उन तीन भारतीय लड़कों को बहुत याद करते हैं जो उन दिनों इंजिनीयरिंग कोर्स कर रहे थे और न्यू यॉर्क में किराए का कमरा लेकर रह रहे थे ! ये उन्हीं के साथ किराया शेयर कर रहे थे खाना बनाने में उनकी मदद कर लेते थे और वे इन्हें अंगरेजी और स्पेनिज सिखाने लगे ! उन लड़कों की मेहनत रंग लाई और वे दोनों भाषाओं को फर्राटे से बोलने लगे !

शेर बहादुरसिंह १९८२ में न्यू यॉर्क अमेरिका आये थे ! ये बड़े शांत स्वभाव के मिलनसार, पढ़े लिखे हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक व्यक्ति हैं ! इनके चहरे पर सदा एक कुदरती मुस्कान विद्यमान रहती है जो सामने वाले का ध्यान अनायास ही अपनी ओर खींच लेती है ! ! संगठन बनाने में इन्हें महारत हासिल है ! आद्या प्रसाद सिंह जी से किसी इंडियन शॉप में मुलाक़ात हो गई, दोनों राजपूत थे, दोस्ती हो गयी ! शेर बहादुर सिंह भारत में कानपुर के रहने वाले हैं ! वहां उन्होंने एन सी सी ज्वाइन की मेजर की पोस्ट मिली और अवकास ले लिया ! यहाँ आकर उन्होंने राजपूतों को संगठित किया, बहुत सालों तक राजपूत संगठन के अध्यक्ष रहे ! अब इस संगठन की बाग़ डोर इनके सबसे बड़े लडके धर्मपालसिंह जी के पास है ! इनके साथ आज भी इनके पारिवारिक सम्बन्ध हैं ! इनके तीन लडके हैं दो अमेरिका में हैं और एक भारत में बिजिनेस कर रहा है ! इनसे दोस्ती इतनी गहरी होगई है की आज भी निभा रहे हैं !
आद्या प्रसाद सिंह जी इस लेख के लेखक श्री हरेंद्रसिंह रावत को, जो अपने लडके राजेश रावत के पास आये हुए थे, अपने अभिन्न दोस्तों की श्रेणी में रखते हैं, वे उन्हें याद करते हुए कहते हैं की, ” मुझे रावत जी अगस्त २००५ में एक दिन अचानक रिपब्लिक रोड पर घूमते हुए मिल गए थे ! इनके मित्र जैसे सुन्दर व्यवहार ने मुझे काफी प्रभावित किया और इन्हें मैं अपने घर पर ले आया ! पता लगा की ये एक अच्छे लेखक के साथ साथ योग विद्या में भी माहीर हैं ! हमारे परिवार ने इनसे योगा की शिक्षा ग्रहण की ! इस तरह रावत जी उनकी पत्नी और बच्चे हमारे परिवार से एक प्रकार से जुड़ से गए ! वे हर साल छ महीने के लिए अमेरिका आते थे और हम इन छ महीनों को यादगार दिन बना लेते थे ! आज भी जब की घर दूर दूर हो गए हैं मिलते रहते हैं ! ” ! साथ ही वे अपने उन सारे दोस्तों को, संगी साथियों को तथा स्कूल दिनों के गुरुजनों को भी वे याद करते हैं !
लेखक

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