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१५ अगस्त २०१५

jagate raho
jagate raho
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स्वतंत्रता दिवस आता हम १५ अगस्त मनाते,
हर आँगन हर भवन में अपना तिरंगा लहराते,
मधुर स्वरों में राष्ट्रीय गीत, नन्ने बच्चे गाते,
हर जाति धर्म प्रांतों के वरिष्ठ तिरंगे पे हाथ लगाते !

मास सोसाईटी के प्रांगण में इकट्ठे सारे लोग,
कोई सुबह को रेस लगाते कोई करते योग,
कोई करते योग, हर चेहरे पर खिली मुस्कान,
छोटों को आशीष बच्चो बड़ों को प्रणाम !
बसों को प्रणाम, देश के बच्चे पतंग उड़ा रहे हैं,
लंच तो रोज ही खाते लड्डू भोग लगा रहे हैं !!

आओ याद करें वीरों को जो फांसी पर लटक गए,
अमर ज्योजी में जलते हैं हर रोज दीपक नए नए !
जो जवान सीमा पर जाकर लौट के वापिस नहीं आए,
दे गए अपना आज देश को उन्हें नमन है शीश झुकाए !
कहाँ गए सुभाष भगतसिंह कहाँ चन्द्र शेखर आजाद ?
उन्हीं के रक्त बिन्दु से लहराता तिरंगा है आज !
आ उनकी आवाज सुनो, “रक्त दो आजादी दूंगा,
माँगने से भीख नहीं मिलती, मैं छीन के भारत लूंगा !!
आखिरबार भगतसिंह बोले,
“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वरष मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निंशा होगा !
सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना वाजुवे कातिल में है !”

आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों का अपने देश वासियों को आखिरी सन्देश =
“जब भारत माता के आँगन में कदम रखो,
कहना मेरे अपनों से,
“हमने अपना आज दे दिया, तुम्हारे कल के लिए,
कहीं ये दागदार न हो, इस विरासत को बचाने के लिए !
आजादी पाने, तिरंगा लहराने के लिए, कही सर कटे हैं,
जलियांवाला बाग़ जैसे गहरे कुवें लाशों से पटे हैं,
लाला लाजपत राय के बलिदान को कहीं भूल न जाना,
भ्रष्टाचारी, लुटेरे, आतंकियों को ऐसे ही डंडे लगाना,
जो परिवार रिश्तेदारों से दूर, कर्मशील हो गद्दी पर बिठाना,
ये किसी परिवार की बपौती नहीं वंशवादी राजनीति न चलाना !””
कुछ पंक्तियाँ आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ्फर के भी सुनिए +
जेल में आखरी वक्त की शायरी थी ये उनकी !
“लगता नहीं है जी मेरा, उजड़े दयार में,
किसकी बनी है आलम-ऐ नायामेदार में .
बुलबुल को पासवां से न सैयाद से,
मिला किस्मत में कैद लिखी थी,
फसल-ए-बहार में !
इन हसरतों से कहदो,
कहीं और जा बसे,
इतनी जगह कहाँ है,
दिल-ए-दागदार में !

इक शाखा-ए-गुल में बैठ के
बुलबुल है शादमां कांटे,
बिछा दिए हैं दिल-ए-लालजार में !
उम्र-ए-दराज मांग के लाए थे चार दिन,
दो आरजू में कट गए, दो इंतज़ार में !

दिन जिंदगी के ख़त्म हुए, शाम होगई !
फैलाके पाँव सोएंगे कुंज-ऐ-मजार में !
कितना बदनसीब “जफर”
दफ़न के लिए दो गज जमीन भी
न मिली के-यार में ! हरेन्द्र

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