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चला था मंजिल की ओर, राह में रावण मिल गया,
क्या इंसान इतना क्रूर भयानक हो सकता है,
दिल घबरा गया !
मन ने कहा,
अरे ये रावण नहीं उसका भूत है,
हिम्मत से काम ले,
तुलसी के चौपाय की कंठी बना ले,
“धीरज धर्म मित्र और नारी,
आपात काल परखेउ ये चारी,
भूत के हाथ पाँव नहीं होते,
पाप कर्मोंं से हाथ पाँव हैं धोते,
दिल मजबूत हुआ, मैं आगे चला,
रावण का भूत कैसे टिकता भला,
नजरों से अदृश्य होगया,
दुबारा कभी नजर नहीं आया !
बसन्ती बहार
बसंत आगया था, कुदरत मुस्करा रहा था,
सरसों के खेतों में भँवरे आगये थे,
भंवरों की गुंजन,
रंग बिरंगी तितलियों का मनोरंजन,
लम्बी उड़ान भर रही थी,
फूलों का झूला बनाकर झूल रही थी
ये श्रिष्टी की विशेष रचना है,.
अर्जुन को कृष्ण ने कही थी !
फूलों की घाटी मुस्कराने लगी थी,
स्वर्ग की अफसराएं धरा आ गयी थी !
यम, कुबेर, वरुण, इंद्र धरती पर उतर आए,
नारद मोहनी रूप देख पगला गए,
बसंत ऋतु ने कमाल दिखाया,
कामदेव सैना सजा के उतर आया,
इंद्र अफसरा मेनका ने अपनी मोहनी से
विश्वामिमित्र का ध्यान डिगाया !
सन्यासी विश्वामित्र ने मेनका से व्याह रचाया !
दोनों की संतान शकुंतला हुई !
यही शकुंतला आगे भरत की माँ बनी !
उसी भरत के नाम से देश भारत हुआ,
उड़ती यहां कभी सोने की चिड़ी थी !
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