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एक दिन संध्या का समय,
धीरे धीरे बढ़ रही थी रात,
हम पार्क में बैठे थे,
दोस्तों से हो रही थी मुलाक़ात !
बल्ब जला, हुआ प्रकाश,
ऊपर फैला था नीला आकाश !
पता नहीं क्यों मुझे हंसी आई,
मुझे हँसता देख सारे हंस पड़े,
बुजुर्ग थे बैठे हुए जवान थे खड़े,
दिल धड़क रहा था, जवान बंद थी,
साथियों ने हल्की सी चटकी ली,
चुन्नू मुन्नू पप्पू के नाम पर मैं हंस पड़ा,
मेरे ठीक सामने एक पहलवान टाइप
मुच्छल था खड़ा !
बोला गुस्से से, “मेरी मुच्छों पर हंसा”,
“नहीं भय्या”, मैंने व्यंग कसा !
:क्या हैं मुच्छें आपकी,
देश की शान हैं,
मुच्छों के कारण ही विश्व में हमारी पहचान है !
शायर बना, आपकी मुच्छें देखकर,
कविता भी न्योछावर इन्हीं मूछों पर’ !
खुश होकर उसने मुझे कन्धों पर बढ़ा लिया,
तालियां बजी जोर से, मुझे शायर बन दिया !
गला साफ़ बुलंद आवाज, नयी ऊर्जा आगई,.
भाइयो उसी दिन से बंद जवान खुल गयी !
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