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ये है गीता का ज्ञान, पढ़ो सुबह और शाम

jagate raho
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कुरुक्षेत्र का विशाल रण क्षेत्र, एक तरफ कौरव दल विशाल सैना के साथ तो दूसरी ओर पांडवों की सैना श्रीकृष्ण की निगरानी में !
दोनों सैनाओं के बीचों बीच श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को युद्ध करने के लिए मना रहे हैं, लेकिन अर्जुन अपने परिवार वालों के खिलाफ जहां, उसके पितामह है, गुरु है, गद्दी पर बैठे ताऊ ताई हैं और उनके १०१ लडके, रिश्ते के भाई, शकुनि जैसे षड्यंत्र कारी मामा के संरक्षण में हैं, जिन्होंने जुवे में उनका सब कुछ लूट लिया और अब इस धरती से उनका नामों निशान भी मिटा देना चाहते हैं, उनसे युद्ध नहीं करना चाहते !
कृष्ण – तुम क्षत्री हो, क्षत्री कभी रणभूमि में उतरने के बाद लड़ाई से विमुख नहीं होता, नहीं तो रणछोड़ कहलाता है ! अगर लड़ाई जीत गए तो धरती का राज मिलेगा, वीरगति मिली तो स्वर्ग का सिंघासन स्वयं इंद्र बनेगा ! लड़ाई से विमुख होने पर तुम्हारे वही भाई बंद, गुरु पितामह जिन्हें तुम मारना नहीं चाहते तुम्हे बहुत बुरा भला कहेंगे, ‘नकारा, नपुंशक, कायर, भगोड़ा, रणछोड़, क्षत्रिय वंश का कलंक ‘ तक बताएंगे ! असमंजस का लिवादा उतार कर, सच्चे मन से मेरा भक्त बन जा और अपने सारे भले बुरे कर्मों को, भक्ति में घोल कर मुझे समर्पित कर दे ! तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा !
तुम क्या थे और आज क्या हो ? तुम्हे तुम्हारी वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिए आज मैं तुम्हारे चक्षु द्वार से अज्ञानता का पर्दा हटा कर तुम्हें दुर्लभ गीता ज्ञान के प्रकाश का दर्शन करवाऊंगा ! जो ज्ञान आज मैं तुम्हे देने जा रहा हूँ, उसे मैंने सबसे पहले शृष्टी के आदिकाल में सूर्य को दिया था, उन्होंने आदि पुरुष मनु को दिया, मनु ने इक्षाकु को, फिर यह ऋषि मुनियों तक पहुंचा और धीरे धीरे अज्ञानता के अँधेरे में जाकर बुझ गया !
अर्जुन – “आश्चर्य चकित होकर”, कृष्ण, आपतो मेरे सखा हो, आपका और मेरा जन्म इसी युग द्वापर में हुआ है, फिर आपने शृष्टी के आदिकाल में सूर्य को यह ज्ञान कैसे दिया ?
कृष्ण – अर्जुन तेरे और मेरे बहुत से जन्म होचुके हैं, तुझे कुछ भी याद नहीं, और मुझे सब जन्मों की याद है ! क्योंकि तू केवल एक पांच तत्व का इंसान मात्र है और मैं स्वयं नारायण हूँ !
‘तुझमें मुझ में बस भेद यही, तू नर है मैं नारायण हूँ,
तू है संसार के हाथों में, संसार है मेरे हाथों में !
तू नदी किनारे का मांझी, मैं भवसागर का केवट हूँ,
तू नदी में सैर कराता है, मैं भवसागर पार लगाता हूँ,
तू इंद्र का वरदान धरा पर, मैं त्रिभुवन का स्वामी हूँ,
तू तो है ब्रह्मा की रचना, मैं ब्रह्मा स्वयम बनाता हूँ !
तू कर्मों से बंधा हुआ, मैं सदा मुक्त हूँ कर्मों से,
तू भला बुरा जो करता है, मैं उसकी व्याख्या करता हूँ,
तू धरती पर नन्ना सा जीव, मैं जड़ चेतन का मालिक हूँ,
तू ग्रह राशियों के बंधन में, मैं इनका निर्णायक हूँ !
तुझमें मुझमें अंतर इतना, तू मानव मैं भगवान् हूँ,
तू है संसार के हाथों में संसार है मेरे हाथों में ! १ !
जब जब होती हानि धर्म की और अधर्म बढ़ जाता है,
ऋषि मुनि निर्बल संतों को, असुर दल सताता है,
तब तब मानव रूप बनाकर धरती पर मैं आता हूँ,
कभी राम तो कभी कृष्ण या नरसिंघा बन जाता हूँ !
तेरा जन्म मेरी इच्छा पर, मैं जब चाहूँ तब आता हूँ,
हैं तेरे लाखों देवी-देवता, मैं स्वयं उन्हें नचाता हूँ !
तू जन्म मरण से बंधा हुआ, मैं अविनासी अजन्मा हूँ,
भेद यही तुझ में मुझमें तू नर है मैं नारायण हूँ,
तू है संसार के हाथों में संसार है मेरे हार्थों में ! २ !
तू केवल अर्जुन की धड़कन, मैं तो हर दिल में समाया हूँ,
निर्मल जलधारा में मैं हूँ, फूलों की खुशबू, मुस्कान में हूँ !
हर जीव के दिल में दीपक बन, सदा मैं जलता रहता हूँ,
नजर झुका के ज्योति देखलो, सब जीवों से कहता हूं,
न मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा न मैं चर्च में रहता हूँ,
हर दिल में मोती सा बन, दिल रोशन मैं करता हूँ,
क्षेत्र तेरा रण भूमि है, रण भूमि में जाना होगा,
क्षत्रिय वंश की मर्यादा, कर्तव्य निभाना होगा,
जिनको भाई बँधु बतलाता, वे बोझ पाप से मरे पड़े हैं,
पितामह और गुरु द्रोण, अपने पांवों में नहीं खड़े हैं !
ये आत्मा तो अजर अमर है इसे मार सकता है कौन,
कर्म तो करता है ये तन, आत्मा रहती सदा ही मौन !
इस आत्मा को,
न शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है,
न पानी गला सकता है, न हवा सुखा सकती है !
शरीर तो केवल वस्त्रमात्र, हर बार बदलना पड़ता है,
जर्जर, बीमार शरीर मरकर पंचतत्व में मिलता है !
उठा धनुष और चला वाण, नतीजा मुझपर छोड़,
पापों का भागी नहीं बनेगा, दुश्मन का सीना फोड़ !
अब तो समझ गया हे अर्जुन, तू नर है मैं नारायण हूँ,
तू है संसार के हाथों में, संसार है मेरे हाथों में !
(गीता ११ वां
अध्याय से)
अर्जुन – आपने जिन अत्यंत गुह्य आध्यात्मिक ज्ञान का दर्शन मुझे करवाया है, उसे सुनकर
मेरा मोह अब दूर हो गया है ! मैंने जीव की उत्पति तथा लय के विषय में विस्तार से
सुना और आपकी महिमा को दिल में अनुभव किया है ! हे परमेश्वर, यद्यपि आपको मैं
आपके द्वारा वर्णित वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, पर भगवन, मैं यह देखने का इच्छुक
हूँ की आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रकट होते हो, मैं उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ !
हे नयोगेश्वर, अगर आप मुझे आपके विश्व रूप को देखने में समर्थ समझते हैं, तो मुझे कृपा करके अपना
असीम विश्व रूप दिखलाइए !
भगवान् ने अर्जुन को दिव्य चक्षु देकर उन्हें अपना विराट रूप दिखाया !
विराट रूप में
अर्जुन मेरे शरीर में, आदित्यों, वसुवों रुद्रों को देख,
भूत-भविष्य अश्वनी कुमारो सब देवता जीवों को देख,
ब्रह्मा, विष्णु महेश्वर, सब ऋषि मुनि सर्पों को देख,
लाखों चमकते सूर्य चंद्रमा, ग्रह नक्षत्र तारों को देख,
लाखों करोड़ों हाथ मुंह पेट सिरों और आँखों को देख,
अनेक मुकुटधारी देवों और भयंकर राक्षसों को देख,
सूर्य चंद्रमा आँखें मेरी,ये उच्च हिमालय पर्वत देख,
नदियाँ, झील, चश्मे, जंगल और सात महासागर देख,
जो अभी तक नहीं देखा है, वह सब अब मुझमें देख,
बचपन, जवानी और बुढापा, अंत पड़ाव मृत्यु को देख !
मैं ही सब जीवों के दिल में बसा हुआ परमेश्वर हूँ,
मैं ही अनंत, सब जीवों का आदि मध्य अंतेश्वर हूँ,
इसीलिए कहता हूँ तुमसे,
तुझमें मुझमें बस भेद यही तुम नर हो मैं नारायण हूँ,
तुम हो संसार के हाथों में संसार है मेरे हाथों में ! ३ !
अर्जुन – अविश्वास का पर्दा दूर हुआ, तुम सखा नहीं परमेश्वर हो,
हम भूले भटके निर्बल मानव, तुम त्रिलोकी ईश्वर हो !
तुझमें मुझमें बस भेद यही मैं नर हूँ तुम नारायण हो,
मैं हूँ संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में !!! हरेंद्र १३/०८/2016

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