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बसंत पंचमी पर
छिपके बैठी हुई आम की डाल पर,
इक कोयल मधुर गीत गाती रही,
दिवस भी पीले वस्त्रों में लिपटा हुआ,
कुदरत थी रंग बरसाती रही,
और थी धरा बसंत को बाहों में भरे,
स्वागत बसंत का करती रही !
सरसों के फूलों की माला गले में,
बसंत खड़ी मुस्कराती रही !
ये ही थी वो मिलन की घडी
हर डाल पर मुस्कराती कली,
पेड़ पौधे मगन मिलके पवन संग,
बसंती उत्सव मनाते रहे,
भवंरों का दल फिर खिले फूल पर,
गुनगुनाते रहे गीत गाते रहे !
मैं कहता रहा वो सुनते रहे,
उनके मुख बिम्ब से फूल गिरते रहे ! १ !
एक मिलन ऐसा भी
मैं कहता रहा वो सुनते रहे,
गिला शिकवा पे अश्क बहते रहे,
नाव चलती रही दरिया बहती रही,
हवा भी सनसनाती रही,
यादों का झरना पर्वत शिखर से,
सुरीले स्वरों में झरता रहा !
दूर कहीं दूसरी नाव पर,
माझी विरह गीत गाता रहा,
खामोस पेड़ों की डालियों पे,
चकवा चकवी को मनाता रहा,
दोनों किनारे नदी घाट पर,
पशु पक्षी भी स्नहे की चादर लपेटे,
चह चहाते रहे, सिंघे भिड़ाते रहे,
मयूरी मयूरों के गिरते हुए,
कीमती आंसुओं को पीते रहे,
मैं कहता रहा वो सुनते रहे,
गिला शिकवा पे अश्क बहते रहे ! २ !
बादलों एक टुकड़ा उड़ता हुआ,
ऊपर से नीचे उतरता हुआ,
पर्वत शिखर से टकरा गया,
नन्ने नन्ने टुकड़ों में बिखरा हुआ,
हवा का झोंका उड़ा ले गया,
कुछ टुकड़ों को पीछे छोड़ कर !
जैसे बिछुड़ जाते पेड़ों से पत्ते,
पेड़ों से नाता सदा तोड़ कर !
बिछुड़े हुए दर्द को याद करके,
अश्रु चक्षुवों से बहते रहे,
मैं कहता रहा वो सुनते रहे,
गिला शिकवा पे अश्रु बहते रहे ! हरेंद्र
मैं तो पहरेदार हूँ,
जिंदगी क्या है बला,
आया पहली बार हूँ,
“है किसी की मंहगी कार,
और गले मोती हार,
करोड़ों की सम्पति है,
और सोने के हैं किवाड़ “!
फिर बटोरे जा रहा है,
जो चाहता है पा रहा है,
जिंदगी के गीत को,
अपने स्वरों में गा रहा है,
और आंसू निर्धनों के,
जाम में उनको मिलाके,
पी रहा है जी रहा है,
हूँ मसिया निर्धनों का,
हर किसी से कह रहा है ! हरेंद्र
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